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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒ नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्री॒वाऽअपि॑कृन्तामि॒। यवो॑ऽसि य॒वया॒स्मद् द्वेषो॑ य॒वयारा॑तीर्दि॒वे त्वा॒ऽन्तरि॑क्षाय त्वा पृथि॒व्यै त्वा॒ शुन्ध॑न्ताँल्लो॒काः पि॑तृ॒षद॑नाः पितृ॒षद॑नमसि ॥२६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्या॒मिति॒ हस्ता॑ऽभ्याम्। आ। द॒दे॒। नारि॑। अ॒सि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्। ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। यवः॑। अ॒सि॒। य॒वय॑। अ॒स्मत्। द्वेषः॑। य॒वय॑। अरा॑तीः। दि॒वे। त्वा॒। अ॒न्तरिक्षा॑य। त्वा॒। पृ॒थि॒व्यै। त्वा॒। शुन्ध॑न्ताम्। लो॒काः। पि॒तृ॒षद॑नाः। पि॒तृ॒सद॑ना॒ इति॑ पितृ॒ऽसद॑नाः। पि॒तृ॒षद॑नम्। पि॒तृ॒सद॑न॒मिति॑ पितृ॒ऽसद॑नम्। अ॒सि॒ ॥२६॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:26


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

किसलिये इस यज्ञ को करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे मैं (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने और (देवस्य) सब आनन्द के देनेवाले परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में (अश्विनोः) प्राण और अपान के (बाहुभ्याम्) बल और वीर्य तथा (पूष्णः) अतिपुष्ट वीर के (हस्ताभ्याम्) प्रबल प्रतापयुक्त भुज और दण्ड से अनेक उपकारों को (आददे) लेता वा (इदम्) इस जगत् की रक्षा कर (रक्षसाम्) दुष्टकर्म करनेवाले प्राणियों के (ग्रीवाः) शिरों का (अपि) (कृन्तामि) छेदन ही करता हूँ, तथा जैसे पदार्थों का उत्तम गुणों से मेल करता हूँ, वैसे तू भी उपकार ले और (यवय) उत्तम गुणों से पदार्थों का मेल कर। जैसे मैं (द्वेषः) ईर्ष्या आदि दोष वा (अरातीः) शत्रुओं को (अस्मत्) अपने से दूर कराता हूँ, वैसे तू भी (यवय) दूर करा। हे विद्वन् ! जैसे हम लोग (दिवे) ऐश्वर्य्यादि गुण के प्रकाश होने के लिये (त्वा) तुझ को (अन्तरिक्षाय) आकाश में रहनेवाले पदार्थ को शोधने के लिये (त्वा) तुझ को (पृथिव्यै) पृथिवी के पदार्थों की पुष्टि होने के लिये (त्वा) तुझ को सेवन करते हैं, वैसे तुम लोग भी करो। जैसे (पितृषदनम्) विद्या पढ़े हुए ज्ञानी लोगों का यह स्थान (असि) है और जिस से (पितृषदनाः) जैसे ज्ञानियों में ठहर पवित्र होते हैं, वैसे मैं शुद्ध होऊँ तथा सब मनुष्य (शुन्धन्ताम्) अपनी शुद्धि करें और हे स्त्री ! तू भी यह सब इसी प्रकार कर ॥२६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि ठीक-ठीक क्रियाक्रमपूर्वक विद्वानों का आश्रय और यज्ञ का अनुष्ठान करके सब प्रकार से अपनी शुद्धि करें ॥२६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

किमर्थोऽयं यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(देवस्य) सर्वानन्दप्रदस्य (त्वा) त्वां होमशिल्पाख्ययज्ञकर्त्तारम् (सवितुः) सकलोत्पादकस्येश्वरस्य (प्रसवे) यथा सृष्टौ तथा (अश्विनोः) प्राणापानयोः (बाहुभ्याम्) यथा बलवीर्याभ्यां तथा (पूष्णः) पुष्टिमतो वीरस्य (हस्ताभ्याम्) यथा प्रबलभुजदण्डाभ्यां तथा (आ) समन्तात् (ददे) गृह्णामि (नारि) नराणमियं शक्तिमती स्त्री तत्सम्बुद्धौ (असि) भवति (इदम्) विश्वम् (अहम्) सभाध्यक्षः (रक्षसाम्) दुष्टकर्मकारिणां प्राणिनाम् (ग्रीवाः) शिरांसि (अपि) निश्चये (कृन्तामि) छिनद्मि (यवः) मिश्रणामिश्रणकर्ता (असि) वर्त्तसे (यवय) श्रेष्ठैर्गुणैः सह मिश्रय, दोषेभ्यश्च दूरीकारय। अत्र वा छन्दसि [अष्टा०भा०वा०१.४.९] इति वृद्ध्यभावः। (अस्मत्) स्वेभ्यः (द्वेषः) ईर्ष्यादिदोषान् (यवय) दूरीकारय (अरातीः) शत्रून् (दिवे) सत्यधर्मप्रकाशाय (त्वा) त्वाम् (अन्तरिक्षाय) आकाशे गमनाय (त्वा) त्वाम् (पृथिव्यै) पृथिवीस्थपदार्थपुष्टये (त्वा) त्वाम् (शुन्धन्ताम्) पवित्रीकुर्वताम् (लोकाः) सर्वे (पितृषदनाः) यथा पितृषु ज्ञानिषु सीदन्ति तथा (पितृषदनम्) यथा विद्यावन्तो ज्ञानिनस्सीदन्ति यस्मिंस्तत्तथा (असि) अस्ति। अयं मन्त्रः (शत०३.६.१.४-१४) व्याख्यातः ॥२६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथा अहं सवितुर्देवस्य प्रसवे यथाऽश्विनोर्बाहुभ्यां यथा पूष्णो हस्ताभ्यामनेकानुपकारानाददे। इदं विश्वं संरक्ष्य रक्षसां ग्रीवा अपिकृन्तामि। यथा पदार्थान् यावयामि तथा त्वमप्यादत्स्व यवय च। यथाऽहं द्वेषोऽरातीः शत्रूनस्मद् दूरीकारयामि तथा त्वमपि यवय। हे विद्वन् ! यथाऽहं दिवे त्वा त्वां तमन्तरिक्षाय त्वा त्वां पृथिव्यै त्वा त्वामाश्रयामि, तथा सर्वे जना आश्रयन्ताम्। यथा पितृषदनमस्ति येन पितृषदना लोकाः शुन्धन्ति, यदहं शुन्धे तथेदं सर्वे शुन्धन्ताम्। हे नारि ! त्वमप्येतत्सर्वमेवमेव समाचर ॥२६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथाक्रियं यथानुक्रमं विद्वदाश्रयं कृत्वा यज्ञमनुष्ठाय सर्वेषां शुद्धिः सम्पादनीया ॥२६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी व्यवस्थित कार्य करून विद्वानांचा आश्रय घ्यावा व यज्ञाचे अनुष्ठान करून सर्व प्रकारे आपल्याला पवित्र करावे.